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क्या मुस्लिम महिलाएं “वोट बैंक” नही हैं?

AGLI DUNIYA carajeevgupta.blogspot.in
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देश मे आजकल तीन तलाक देने की कुप्रथा का मुद्दा जोर शोर से गरमाया हुआ है. गौर करने वाली बात यह है कि भारत के संविधान के आर्टिकल 44 मे 1949 मे ही यह प्रावधान कर दिया गया था कि-” सरकार यह सुनिश्चित करे कि भारत के सभी नागरिकों के लिये समान आचार संहिता सम्पूर्ण भारत मे लागू की जाये.” संवैधानिक प्रावधानो को लागू करना हर सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी होती है. सर्वोच्च न्यायालय भी कई बार संविधान मे लिखे हुये इस यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करने की बात कह चुका है लेकिन दुर्भाग्य यह है कि पिछले 70 सालों मे भी कोई सरकार अपने इस संवैधानिक दायित्व को पूरा नही कर सकी है और मुस्लिम महिलाओं का उत्पीड़न “तीन तलाक” की कुप्रथा के चलते बदस्तूर जारी है.

पिछले 60 सालों मे जो सरकारें चल रही थीं, उनका मुख्य उद्देश्य देश के हित मे काम करने की बजाये मुस्लिम तुष्टिकरण के विष बीज बोकर ही सत्ता हथियाना रहा था. इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिये राजीव गाँधी ने शाह बानो मामले मे अपने बहुमत का दुरुपयोग करते हुये सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट कर सर्वोच्च न्यायालय का अपमान तक कर दिया था- उनके लिये “मुस्लिम तुष्टिकरण” के आगे देश का सुप्रीम कोर्ट भी छोटा हो गया. यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण थी, लेकिन मोदी सरकार बनने से पहले इस देश मे सरकारें इसी तरह चला करती थी-या तो खुद “मुस्लिम तुष्टिकरण” करती थी और अगर संविधान और सुप्रीम कोर्ट भी “मुस्लिम तुष्टिकरण” के रास्ते की बाधा बनने की कोशिश करता था तो उसकी भी अवहेलना करने मे उन्हे कोई परहेज़ नही होता था.

हमारे देश मे हालांकि ऐसे बुद्धिजीवियों की कमी नही है जो किसी भी तरह के अन्याय,अत्याचार और उत्पीड़न के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाने मे कोई कोर कसर उठा रखते हों-पिछले दिनो तो काफी ऐसे बुद्धिजीवियों ने मोदी सरकार द्वारा किये जा रहे “काल्पनिक उत्पीड़न” के खिलाफ अपने समय समय पर मिले पुरस्कार तक वापस करके अपना विरोध दर्ज़ कराया था. लेकिन मुस्लिम महिलाओं के साथ हो रहे इस अन्याय,अत्याचार और उत्पीड़न पर जब तक उनके आवाज़ उठाने या विरोध दर्ज़ कराने का नंबर आता है तो उनके सारे पुरस्कार ही तब तक खत्म हो चुके होते हैं. ऐसे बुद्धिजीवियों से करबद्ध प्रार्थना यही की जा सकती है कि पुरस्कार ना भी बचे हों, तो वे लोग इसका विरोध “पुरस्कार वापसी” के बिना ही सही, दर्ज़  जरूर करा दें-70 सालों से यह मुस्लिम महिलाएं अत्याचार,अन्याय और उत्पीड़न को सिर्फ इसी उम्मीद मे लगातार सहे जा रही हैं कि कभी तो कोई भारतीय बुद्धिजीवी उनकी भी सुध लेगा और उनके साथ हो रहे इस अत्याचार के विरोध मे अपने-अपने पुरस्कार वापस करना शुरु करेगा.

अपने आप को “सेक्युलर” कहने और समझने वाले नेताओं से भी यही विनती है कि दलित उत्पीड़न और मुस्लिम उत्पीड़न पर राजनीति करके अब अगर उनका मन भर गया हो तो थोड़ी सी कृपा इन मुस्लिम महिलाओं पर भी करें और पिछले 70 सालों से जो उत्पीड़न इनके साथ हो रहा है, उसको खत्म करने के लिये “यूनिफॉर्म सिविल कोड”   जल्द से जल्द लागू करवाने के लिये वर्तमान सरकार पर अपने तरीके से दबाब बनाएं ताकि 70 सालों से जुल्म सहती हुई इन महिलाओं के साथ साथ देश के संविधान और सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा की भी रक्षा हो सके.

मुस्लिम महिलाओं के साथ पिछले 70 सालों से जो भयंकर उत्पीड़न हो रहा है, उसके लिये मुस्लिम समाज़ बिल्कुल भी दोषी नही है- हाँ इसके लिये वे सभी सरकारें और नेता जरूर दोषी हैं, जिन्होने “यूनिफॉर्म सिविल कोड” पिछले 70 सालों मे लागू नही किया. समय अब बदल चुका है, इंटरनेट आने के बाद सोशल मीडिया पर क्रांति आ चुकी है जिसकी ताकत को यह नेता अभी तक पहचान नही सके हैं- अगर अब किसी भी नेता ने “यूनिफॉर्म सिविल कोड” को लागू कराने मे अडंगा डालने की नापाक कोशिश भी की तो यही मुस्लिम महिलाएं उन्हे “चुनावी राजनीति” का ऐसा पाठ पढ़ाएँगी, जिसके चलते उनका “वोट बैंक” भी तेजी के साथ खाली होता नज़र आने लगेगा.

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